मीडिया की साख का सवाल
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समय किसी का गुलाम नहीं होता और इसीलिए कभी-कभी घटनाएं आपस में टकरा जाया करती हैं। घटनाओं की इस रगड़ में संदर्भों की ऐसी खास कौंध पैदा होती है कि सब कुछ साफ-साफ दिखने लगता है।
कांची कामकोटि पीठ के अधिपति को न्यायालय द्वारा आरोप मुक्त किया जाना और बलात्कार के आरोपी तहलका संपादक के पक्ष में मीडिया की लामबंदी ऐसी ही दो घटनाएं हैं जो समय के इस मोड़ पर आ टकराई हैं, और इस बार जो दिख रहा है वह है मीडिया का राष्ट्रघाती-पक्षपाती रूप।
11 नवंबर 2004 को जब कांची कामकोटि पीठ के 69 वें पीठाधिपति परम पावन शंकराचार्य पर आरोप लगे थे तो संपूर्ण हिन्दू समाज के लिए यह आक्षेप अकल्पनीय था। मुख्यधारा मीडिया के एक बड़े भाग ने मामले को नाटकीयतापूर्ण अलग दिशा देने के लिए उस समय जैसी भूमिका निभाई वह और ज्यादा आधात पहुंचाने वाली थी। अखबारों और पत्रिकाओं के पहले पन्ने पर, आवरण कथाओं में हिन्दू समाज की संत परंपरा को सत्ता और संपत्ति केंद्रित बताने का कैसा कलुषित षड्यंत्र चला यह सबने देखा।
आज अंगुली दूसरों को चुन-चुनकर निशाना बनाने वाले उसी मीडिया के मठाधीशों और उनकी पालेबंदी पर है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब 'हंस' बनकर बैठे एक अन्य बगुले का असली रूप उगाजर हुआ था। दूसरों पर अंगुली उठाने वाले खुद कैसे 'दूध के धुले' हैं और अपनी बात आने पर कैसी न्यायप्रियता दिखाते हैं यह लोगों को तहलका कांड में
दिख गया।
एक वर्ष पहले वसंत विहार बलात्कार कांड के वक्त निर्भया को न्याय दिलाने की मुहिम चलाने वालों के होठ एकाएक सिल गए, जंतर-मंतर पर मोमबत्ती जलाने वालों के चेहरे बुझ गए। संपादक की करतूत देश के सामने आने के बाद कोई नारीवादी संगठन तहलका दफ्तर पर तख्ती लेकर
नहीं पहुंचा।
तहलका संपादक की कुत्सित यौन लिप्सा का शिकार (नए कानून के अनुसार संभवत: इसे बलात्कार कहना ही ठीक है) हुई पत्रकार ने प्रबंधन को आपबीती साफ-साफ बताई लेकिन दूसरों की खबरें खोज-खोज कर निकालने वाले पहले-पहल यह पत्र ही हजम कर गए। किसी तरह खबर बाहर निकल गई तो सामने आया गोलमोल अंग्रेजी में लिखा एक ऐसा माफीनामा जिसे तरुण तेजपाल के प्रायश्चित पत्र के तौर पर महिमा मंडित करने का प्रयास शुरू हुआ। सेकुलर झंडाबरदारों में अंदरखाने बातें हुईं, और इसके बाद दिखा मुख्यधारा के मीडिया का स्पष्ट दोमुहांपन। स्टिंग और ह्यसुपारी पत्रकारिताह्ण के लिए कुख्यात खेमों के पक्ष में संपादकीय पृष्ठ पर और सोशल मीडिया के मंचों पर रहम की आवाजें उठने लगीं।
विडंबना देखिए, संस्कृति को लगातार निशाना बनाने वाले साहित्यकारों ने पूछा-क्या क्षमा कोई मूल्य नहीं है?
कमजोर की हिमायत करने वाले लेखकों ने पूछा-क्या तरुण तेजपाल अकेले अपराधी हैं?
गंदगी को ढकने के लिए धुली-मंझी अंग्रेजी में तर्कों की चादर बुनते पत्रकारों ने पूछा -क्या किसी 'शराबी की दिल्लगी' को इतना तूल देना सही है?
जनता सवालों के जवाब देने की बजाय वामपंथी विचार मंडी का यह पूरा खेल खामोशी से देख रही है। समय परीक्षा लेता है। श्रद्धेय पीठ और पावन परंपरा को लांछित करने के कुत्सित प्रयासों के विरुद्ध हिन्दू समाज ने धैर्यपूर्वक यह परीक्षा पास की है। मीडिया के एकपक्षीय ह्यपैकेजह्ण भी खूब देखे हैं, आज परीक्षा उसी मीडिया की है जो सेकुलर लबादा ओढ़ हिन्दुत्व और राष्ट्र की प्राणशक्ति पर आघात करता रहा और आज खुद कठघरे में है।
शंकराचार्य को दोषमुक्त किए जाने पर सुर्खियां नहीं हैं। मीडिया की क्षमामुद्रा भी नहीं है। जंतर-मंतर पर इस बार मोमबत्तियां भी नहीं हैं। मगर वहां से गुजरते 'जनपथ' पर बातें जरूर चल रही हैं। लोग सच जानते हैं, और सच की सलीब, न्याय के इन स्वयंभू मसीहाओं की नियति है।
कांची कामकोटि पीठ के अधिपति को न्यायालय द्वारा आरोप मुक्त किया जाना और बलात्कार के आरोपी तहलका संपादक के पक्ष में मीडिया की लामबंदी ऐसी ही दो घटनाएं हैं जो समय के इस मोड़ पर आ टकराई हैं, और इस बार जो दिख रहा है वह है मीडिया का राष्ट्रघाती-पक्षपाती रूप।
11 नवंबर 2004 को जब कांची कामकोटि पीठ के 69 वें पीठाधिपति परम पावन शंकराचार्य पर आरोप लगे थे तो संपूर्ण हिन्दू समाज के लिए यह आक्षेप अकल्पनीय था। मुख्यधारा मीडिया के एक बड़े भाग ने मामले को नाटकीयतापूर्ण अलग दिशा देने के लिए उस समय जैसी भूमिका निभाई वह और ज्यादा आधात पहुंचाने वाली थी। अखबारों और पत्रिकाओं के पहले पन्ने पर, आवरण कथाओं में हिन्दू समाज की संत परंपरा को सत्ता और संपत्ति केंद्रित बताने का कैसा कलुषित षड्यंत्र चला यह सबने देखा।
आज अंगुली दूसरों को चुन-चुनकर निशाना बनाने वाले उसी मीडिया के मठाधीशों और उनकी पालेबंदी पर है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब 'हंस' बनकर बैठे एक अन्य बगुले का असली रूप उगाजर हुआ था। दूसरों पर अंगुली उठाने वाले खुद कैसे 'दूध के धुले' हैं और अपनी बात आने पर कैसी न्यायप्रियता दिखाते हैं यह लोगों को तहलका कांड में
दिख गया।
एक वर्ष पहले वसंत विहार बलात्कार कांड के वक्त निर्भया को न्याय दिलाने की मुहिम चलाने वालों के होठ एकाएक सिल गए, जंतर-मंतर पर मोमबत्ती जलाने वालों के चेहरे बुझ गए। संपादक की करतूत देश के सामने आने के बाद कोई नारीवादी संगठन तहलका दफ्तर पर तख्ती लेकर
नहीं पहुंचा।
तहलका संपादक की कुत्सित यौन लिप्सा का शिकार (नए कानून के अनुसार संभवत: इसे बलात्कार कहना ही ठीक है) हुई पत्रकार ने प्रबंधन को आपबीती साफ-साफ बताई लेकिन दूसरों की खबरें खोज-खोज कर निकालने वाले पहले-पहल यह पत्र ही हजम कर गए। किसी तरह खबर बाहर निकल गई तो सामने आया गोलमोल अंग्रेजी में लिखा एक ऐसा माफीनामा जिसे तरुण तेजपाल के प्रायश्चित पत्र के तौर पर महिमा मंडित करने का प्रयास शुरू हुआ। सेकुलर झंडाबरदारों में अंदरखाने बातें हुईं, और इसके बाद दिखा मुख्यधारा के मीडिया का स्पष्ट दोमुहांपन। स्टिंग और ह्यसुपारी पत्रकारिताह्ण के लिए कुख्यात खेमों के पक्ष में संपादकीय पृष्ठ पर और सोशल मीडिया के मंचों पर रहम की आवाजें उठने लगीं।
विडंबना देखिए, संस्कृति को लगातार निशाना बनाने वाले साहित्यकारों ने पूछा-क्या क्षमा कोई मूल्य नहीं है?
कमजोर की हिमायत करने वाले लेखकों ने पूछा-क्या तरुण तेजपाल अकेले अपराधी हैं?
गंदगी को ढकने के लिए धुली-मंझी अंग्रेजी में तर्कों की चादर बुनते पत्रकारों ने पूछा -क्या किसी 'शराबी की दिल्लगी' को इतना तूल देना सही है?
जनता सवालों के जवाब देने की बजाय वामपंथी विचार मंडी का यह पूरा खेल खामोशी से देख रही है। समय परीक्षा लेता है। श्रद्धेय पीठ और पावन परंपरा को लांछित करने के कुत्सित प्रयासों के विरुद्ध हिन्दू समाज ने धैर्यपूर्वक यह परीक्षा पास की है। मीडिया के एकपक्षीय ह्यपैकेजह्ण भी खूब देखे हैं, आज परीक्षा उसी मीडिया की है जो सेकुलर लबादा ओढ़ हिन्दुत्व और राष्ट्र की प्राणशक्ति पर आघात करता रहा और आज खुद कठघरे में है।
शंकराचार्य को दोषमुक्त किए जाने पर सुर्खियां नहीं हैं। मीडिया की क्षमामुद्रा भी नहीं है। जंतर-मंतर पर इस बार मोमबत्तियां भी नहीं हैं। मगर वहां से गुजरते 'जनपथ' पर बातें जरूर चल रही हैं। लोग सच जानते हैं, और सच की सलीब, न्याय के इन स्वयंभू मसीहाओं की नियति है।
Best regards
H.C.CHHATWAL
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